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संजीवनी से भी दुर्लभ

aadishakti
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-पूज्य गुरूजी श्रीसूर्यभान जी महाराज
कैंसर एक ऐसा रोग है जिसका सही-सलामत इलाज न तो ध्रती पर खोजा जा सका है और न ही इसके कारणों के बारे में स्पष्ट ज्ञान हो पाया है। प्रबु(जन इतना अवश्य जानते हैं कि गंभीर तनाव, जीवनशैली की घातक चोट एवं किसी अत्यंत असहज विषम परिस्थिति में कैंसर का प्रादुर्भाव हो सकता है और इसे निर्मूल करना हो तो तन-मन की सुखद अनुभूति, तनाव-मुक्ति एवं रोग के भय से अलग होना प्राथमिकता है। इतना नहीं कर सके तो औषध् िभी कुछ नहीं कर सकेगी। कैंसर एक सहज सुलभ, सर्वमान्य उदाहरण है। बीमारियां अनगिनत हैं ऐसी ही या इससे भी खतरनाक, प्रारब्ध् ही जिनका उपचार समझा जाता है। सैकड़ों मरीज करार दिए गए लोग प्रायः चिकित्सा विज्ञानियों के चंगुल से छूटने के बाद ही स्वाभाविक जीवन पुनः जी पाने में समर्थ हो पाते हैं।
कैंसर कोई रोग नहीं, एक सर्वमान्य विशेषण है व्यक्ति की उस अवस्था का जहां उसकी आंतरिक प्राणशक्ति, आंतरिक उफर्जा जवाब देने लगती है और जहां शरीर व आत्मा के बीच दूरियां बढ़ती चली जाती हैं। वह सहज नहीं रह पाता। मन व शरीर की यह असहजता ही मैंने कैंसर बतायी है। सहजता उत्पन्न नहीं होगी तो औषध् िका लाभ नहीं मिल सकेगा। हर युग में, हर सदी में ऐसे रोग होते आए हैं। कैंसर का नाम सदैव से नहीं था। नाम हमने गढ़े हैं, परिस्थितियां बदली हैं, समय बदला है। कैंसर का इलाज हो भी जाए और जीवन में सहजता न आए तो स्वस्थ न हो सकोगे, कोई अन्य रोग कब्जा कर लेगा।
अध्कि बिस्तार में नहीं ले जाकर मैं साधरण और संक्षिप्त में समझाता हूँ। सर्वप्रथम यह विचार करें कि आप क्या हैं? आप सर्वसमर्थ आत्मा परमशक्ति परमात्मा का एक अंश हैं और जबतक आत्मा व शरीर एक साथ हैं तभी तक आप एक व्यक्ति के रूप में इस ध्रती पर प्रतिष्ठित हैं। आत्मा और शरीर का पृथक्करण आपके व्यक्ति होने को समाप्त करता है और जब तक आप व्यक्ति हैं तभी तक व्यक्तित्व रहता है। बात बहुत सीध्ी और सरल है कि व्यक्तित्व वही है जिसमें आत्मा और शरीर का सहज संबंध् बना रहे।
किंतु व्यक्तित्व के दिखावे में, जो नहीं हैं या हो नहीं सकते वह दिखने के क्षुद्रप्रयास में लोग झूठा व्यक्तित्व स्वंय पर थोपने लगते हैं। इससे आत्मा और शरीर के बीच सामंजस्य यूं टूटने लगता है जैसे पृथ्वी और स्वर्ग के बीच नापने पर दूरी बढ़ती चली जाए।
आप जो खुद को एक शरीर मान बैठे हैं, उसी के परिपोषण में सर्वदा लगे हुए हैं, आत्मशु(ि के लिए और आत्मविकास के तथा आत्मा के सहज पोषण के लिए उसके सुख के लिए कोई इंतजाम नहीं किया है आपने। यदि ऐसा है तो आप कैंसर को आमंत्राण दे रहे हैं। एक ऐसा मूक आमंत्राण जो आपको आत्मा के साथ संमार्ग के सहारे सत्पथ के रास्ते परमात्मा के विश्रांत परमानंद तक ले जाने के बजाय आपको अपनी आत्मा से विलग कर रहा है शरीर के विरोधभास के परिणाम-स्वरूप, जैसे-कुटुम्ब में कलह होने पर प्रेम, अपनत्व और स्वाभाविक सुख स्वतः भस्मीभूत होने लगते हैं।
इसके विपरीत प्रेम, सौहार्द एवं अपनत्व की स्थिति में पारिवारिक आनंद मानो परमानंद बन जाता हो। ऐसा ही है हमारी आत्मा और शरीर का परस्पर संबंध्। मिथ्यावादी व्यक्तित्व के थोपने से, यथार्थ से हटकर जीने से अथवा कहें कि सहज मानव स्वभाव के अनुकूल नहीं जीने से जो हमारे आंतरिक बंध्न हैं वे टूटने लगे हैं और हम लाईलाज होते जा रहे हैं। मेरे संपर्क में असंख्य रोगी आए हैं, उनमें अनेक की स्थिति यही मिली। संत-महंतो ने नही जाना क्या कष्ट है, चिकित्सकों ने नहीं जाना क्या रोग है। दोनों में से कोई एक होता तो भांप लेना कठिन न होता। पारिस्थितियां वही जो उफपर दर्शा चुका हूँ। रोग का इलाज तो बड़े-बड़े चिकित्सालयों में हो सकता था परन्तु यहां तो नाटकीय स्थिति है मित्रा। शरीर के क्रिया-कलाप और कार्यक्रम कुछ हैं तो आत्मा अन्य बोझों को उठाए विकल है। यह कैंसरेत्तर स्थिति है। क्या नाम दूं-एम.बी.बी.एस या एम.डी. होता तो ‘पफोबिया’ या अन्य कोई नाम दे पाता शायद। खैर स्वस्थ ये लोग भी होते हैं किन्तु मेरे पास संजीवनी से भी दुर्लभ औषध् िका भंडार जो है। चैंकिए मत। आपसे परे नहीं वह अमृतसाध्ना, अमृतकोष, अपितु आप उसके स्वामी बन सकते हैं और रोगी नहीं वैद्य बनकर दुखियों को सुखसागर में नहला सकते हैं। बशर्ते आत्मा के साथ, परमात्मा की राह पर परमसत्य और संमार्ग पर चलने को तैयार तो हों। आपके अंदर भी अथाह सागर की गहराई वाला अमृतकोष, असंख्य सूर्यों के प्रकाश को ओझल करने वाला दिव्यतेज भरा पड़ा है। मौन की परिशांत बेला में आत्म विश्रांति के सहारे देहभान से मुक्त होना तो सीखो।

-पूज्य गुरूजी श्रीसूर्यभान जी महाराज

कैंसर एक ऐसा रोग है जिसका सही-सलामत इलाज न तो ध्रती पर खोजा जा सका है और न ही इसके कारणों के बारे में स्पष्ट ज्ञान हो पाया है। प्रबु(जन इतना अवश्य जानते हैं कि गंभीर तनाव, जीवनशैली की घातक चोट एवं किसी अत्यंत असहज विषम परिस्थिति में कैंसर का प्रादुर्भाव हो सकता है और इसे निर्मूल करना हो तो तन-मन की सुखद अनुभूति, तनाव-मुक्ति एवं रोग के भय से अलग होना प्राथमिकता है। इतना नहीं कर सके तो औषध् िभी कुछ नहीं कर सकेगी। कैंसर एक सहज सुलभ, सर्वमान्य उदाहरण है। बीमारियां अनगिनत हैं ऐसी ही या इससे भी खतरनाक, प्रारब्ध् ही जिनका उपचार समझा जाता है। सैकड़ों मरीज करार दिए गए लोग प्रायः चिकित्सा विज्ञानियों के चंगुल से छूटने के बाद ही स्वाभाविक जीवन पुनः जी पाने में समर्थ हो पाते हैं।

कैंसर कोई रोग नहीं, एक सर्वमान्य विशेषण है व्यक्ति की उस अवस्था का जहां उसकी आंतरिक प्राणशक्ति, आंतरिक उफर्जा जवाब देने लगती है और जहां शरीर व आत्मा के बीच दूरियां बढ़ती चली जाती हैं। वह सहज नहीं रह पाता। मन व शरीर की यह असहजता ही मैंने कैंसर बतायी है। सहजता उत्पन्न नहीं होगी तो औषध् िका लाभ नहीं मिल सकेगा। हर युग में, हर सदी में ऐसे रोग होते आए हैं। कैंसर का नाम सदैव से नहीं था। नाम हमने गढ़े हैं, परिस्थितियां बदली हैं, समय बदला है। कैंसर का इलाज हो भी जाए और जीवन में सहजता न आए तो स्वस्थ न हो सकोगे, कोई अन्य रोग कब्जा कर लेगा।

अध्कि बिस्तार में नहीं ले जाकर मैं साधरण और संक्षिप्त में समझाता हूँ। सर्वप्रथम यह विचार करें कि आप क्या हैं? आप सर्वसमर्थ आत्मा परमशक्ति परमात्मा का एक अंश हैं और जबतक आत्मा व शरीर एक साथ हैं तभी तक आप एक व्यक्ति के रूप में इस ध्रती पर प्रतिष्ठित हैं। आत्मा और शरीर का पृथक्करण आपके व्यक्ति होने को समाप्त करता है और जब तक आप व्यक्ति हैं तभी तक व्यक्तित्व रहता है। बात बहुत सीध्ी और सरल है कि व्यक्तित्व वही है जिसमें आत्मा और शरीर का सहज संबंध् बना रहे।

किंतु व्यक्तित्व के दिखावे में, जो नहीं हैं या हो नहीं सकते वह दिखने के क्षुद्रप्रयास में लोग झूठा व्यक्तित्व स्वंय पर थोपने लगते हैं। इससे आत्मा और शरीर के बीच सामंजस्य यूं टूटने लगता है जैसे पृथ्वी और स्वर्ग के बीच नापने पर दूरी बढ़ती चली जाए।

आप जो खुद को एक शरीर मान बैठे हैं, उसी के परिपोषण में सर्वदा लगे हुए हैं, आत्मशु(ि के लिए और आत्मविकास के तथा आत्मा के सहज पोषण के लिए उसके सुख के लिए कोई इंतजाम नहीं किया है आपने। यदि ऐसा है तो आप कैंसर को आमंत्राण दे रहे हैं। एक ऐसा मूक आमंत्राण जो आपको आत्मा के साथ संमार्ग के सहारे सत्पथ के रास्ते परमात्मा के विश्रांत परमानंद तक ले जाने के बजाय आपको अपनी आत्मा से विलग कर रहा है शरीर के विरोधभास के परिणाम-स्वरूप, जैसे-कुटुम्ब में कलह होने पर प्रेम, अपनत्व और स्वाभाविक सुख स्वतः भस्मीभूत होने लगते हैं।

इसके विपरीत प्रेम, सौहार्द एवं अपनत्व की स्थिति में पारिवारिक आनंद मानो परमानंद बन जाता हो। ऐसा ही है हमारी आत्मा और शरीर का परस्पर संबंध्। मिथ्यावादी व्यक्तित्व के थोपने से, यथार्थ से हटकर जीने से अथवा कहें कि सहज मानव स्वभाव के अनुकूल नहीं जीने से जो हमारे आंतरिक बंध्न हैं वे टूटने लगे हैं और हम लाईलाज होते जा रहे हैं। मेरे संपर्क में असंख्य रोगी आए हैं, उनमें अनेक की स्थिति यही मिली। संत-महंतो ने नही जाना क्या कष्ट है, चिकित्सकों ने नहीं जाना क्या रोग है। दोनों में से कोई एक होता तो भांप लेना कठिन न होता। पारिस्थितियां वही जो उफपर दर्शा चुका हूँ। रोग का इलाज तो बड़े-बड़े चिकित्सालयों में हो सकता था परन्तु यहां तो नाटकीय स्थिति है मित्रा। शरीर के क्रिया-कलाप और कार्यक्रम कुछ हैं तो आत्मा अन्य बोझों को उठाए विकल है। यह कैंसरेत्तर स्थिति है। क्या नाम दूं-एम.बी.बी.एस या एम.डी. होता तो ‘पफोबिया’ या अन्य कोई नाम दे पाता शायद। खैर स्वस्थ ये लोग भी होते हैं किन्तु मेरे पास संजीवनी से भी दुर्लभ औषध् िका भंडार जो है। चैंकिए मत। आपसे परे नहीं वह अमृतसाध्ना, अमृतकोष, अपितु आप उसके स्वामी बन सकते हैं और रोगी नहीं वैद्य बनकर दुखियों को सुखसागर में नहला सकते हैं। बशर्ते आत्मा के साथ, परमात्मा की राह पर परमसत्य और संमार्ग पर चलने को तैयार तो हों। आपके अंदर भी अथाह सागर की गहराई वाला अमृतकोष, असंख्य सूर्यों के प्रकाश को ओझल करने वाला दिव्यतेज भरा पड़ा है। मौन की परिशांत बेला में आत्म विश्रांति के सहारे देहभान से मुक्त होना तो सीखो।gurudev

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